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सोमवार, 26 जुलाई 2010

गांधारी

चलो चलें
एक ऐसे युग में,
करें पुरानी बात,
याद दिलाएं
कुछ सुलझाएं,
सुनी अनसुनी राग!

युग है द्वापर,
नाम गांधारी,
सती उसे सब मानें,
पति-धर्म की
पावन धरा की
पतिव्रता पहचानें,
पति-धर्म निभाने,
उसने बांध नयन पर पट्टी,
चली उसी डगर संग
चले जिधर "कुंवर जी!"

साथ निभाया
कुंती का भी,
भगिनी धर्म निभाया,
पर क्या
माँ के पावन रूपों का
भी उसने फ़र्ज़ निभाया?
बात करें जब बीच सभा
में सबने चुप्पी थी ठानी
माँ का धर्म निभाती;
क्या करती रही गांधारी?

वक़्त था पति को
राष्ट्र-धर्म के मर्मों
को समझाती,
नहीं समझ थी
धृतराष्ट्र की आँखें
वो बन जातीं
माँ थी सबकी,
बड़ी थी सबसे,
प्रिय चहेती सबकी
अर्जुन-भीम-युधिष्टिर
संग दुर्योधन की
भी प्रिय थी

दिया कृष्ण को
श्राप मोहवश,
किया उन्होंने पक्षाघात,
क्यों नहीं दी
'दिव्यता' सबको
किया छल औ आघात
यदि चाहती
सबको साथ माला
में एक संजोकर,
नहीं होने देतीं
वो युद्ध "महाभारत"
महा-विध्वंसक!!

2 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

गांधारी पर एक सशक्त रचना ......सुन्दर लेखन ...बधाई

Dr.J.P.Tiwari ने कहा…

bahut hi achchhi rachna ,sashakt bhaaw parantu bhasha sudhar apekhsit. kai aur kaaan hai ho mahabharar kaal ki disha badal sakte the parantu wahi kintu parantu....kuchh is roop me bhi-


सोचिये! महाभारत का रूप क्या होता?
शांतनु का मन यदि विचलित न होता?
भीष्म ने पित्री भक्ति में प्रतिज्ञा की तो की,
परन्तु समय पर यदि समीक्षा किया होता?
कुंती ने ऋषि मन्त्र पर यदि विश्वास किया होता?
शंकालु हो, परीक्षण का दुस्साहस न किया होता,
कर्ण जैसी प्रतिभा को विवादास्पद बनाया न होता.
यदि गांधारी ने आँखों पर पट्टी बाँधी न होती?
राज्य प्रबंधन में ध्रितराष्ट्र का हाथ बंटाया होता?
पति के भटकाव पर यदि सन्मार्ग दिखाया होता?

आखिर शकुनी जैसों का बहन के घर क्या काम?
विदेशी अंततः विदेशी ही होता है,