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रविवार, 12 अगस्त 2012

निज कुर्बानी...

चाहती है फिर लहू 
भारत के नव निर्माण मे,
मांगती है यह लहर 
भारत के नव उत्कर्ष पर...

ले चलो हमको बना दो, 
धधकती ज्वाला के सम
बहुत जल के भटक ली, 
ये चिटकती चिंगारी सम...

मांगती है आज फिर
भारत-भू हमसे कुर्बानी,
हो गयी रुसवा ये खुद से
मांग अपनी होने की निशानी...

जो न दौड़े लहू
बनकर ज्वाला शरीर मे,
कब धधकेगी वो चिंगारी
जो प्रस्तुत हो लेकर निज कुर्बानी...

मंगलवार, 3 जुलाई 2012

नया जहान ढूंढ ही लूंगी


चलना चाहते हो 
मेरे संग तो 
बन आकाश चलो 
मैं धरती बन कर 
कहीं तो तुम्हे छू ही लूंगी 


दूर रह कर भी दिलो में हो
प्यार सा सहारा 
लौटना चाहूँ भी 
तो भी लौट न सकूंगी 


थाम कर हाथ 
चलो संग मेरे वहां जहाँ 
कहीं दूर मिला करते हैं 
धरती गगन विश्वास के साए में 
नया जहान ढूंढ ही लूंगी !!

मुस्कराहट को जगा दे!!




अंत हो जाना
मन के सारे रुदन का,
पिछले पहर
ज्यू छिपा हो 
सूरज 
और बाकी हो 
उसकी लालिमा,

याद दिलाती हो
समझने को
जो तुममे है उर्जा,
अपने भीतर की
छिपी शक्ति को
समेट मत,


उसे जान,
आत्मा की आवाज़
बुलंद कर,
उसे पहचान,
आत्म मंथन से
मन का 
क्रंदन कर बंद,
हंसा दे उसे,
उसकी मुस्कराहट को जगा दे!!

सोमवार, 14 मई 2012

अंतर्व्यथा : मार्मिक मन की...

उठते-बैठते पल-प्रतिपल जब
हर बात में,
देने लगें अपने ही ताने,
तब छलनी हो उठता है 
मार्मिक मन...

छोटी-छोटी प्यारी-प्यारी
मधुर मुस्कान,
पुलकित क्षणिक सच
की बात में,
निकल घर के झरोखे से
झांकती है कोंपल हटा
झरोखों से झूलते...

भटकती है, इधर-उधर
चंहु ओर मगर,
फिर लौट आती है
अपने मन की हर आस को
उसके भीतर छिपाए एहसास को
लिए उसी अपने नन्हे छुपे मन से भीतर...

व्याकुलता बसी रहती है अंतस मे,
पीड़ा छलकती प्रतिपल बस उससे,
मन पर किए गए हैं वार,
अनेकों बार..
क्षत-विक्षत मन कातर करुण 
करता है क्रंदन और पुकार 
पुकारता है तुझे बार-बार...

मन जो इतना नन्हा बच्चा है,
जिसे बार-बार सबने ही छला है,
बस खिलौनों का स्वरुप बदला गया है,
पर कृत्य तो सबने एक सा ही किया है...

झिंझोड़ा है, झंझावातों में भी जो नही डिगता,
नोचा है, काँटों से भी जो नहीं डरता,
फ़ेंक डाला है तोड़-मरोड़कर जाने किस 
कोटर की खोह मे, जिसे खोजना असंभव प्रतीत है...

पीड़ा ये अंतर्मन की,
व्यथा है मार्मिक मन की...

गुरुवार, 10 मई 2012

समन्वय और संभाषण की बातें,

समन्वय और संभाषण की बातें,
जब भी करता दिख जाता है कोई,
सोचती हूँ पूछूँ, 
उनसे उनके सम्मान के भावों को,
सोचती हूँ टटोलूं 
उनके मन के भीतर उठे झंझावातों को...

मगर जब समझ नहीं पाती हूँ 
उनके मन में उठे भाव,
तब जान जाती हूँ -
उन समन्वय के 
झूठे-खोखले शब्दों के कोरे एहसास...

समन्वय तो कभी नहीं होता है उनका मकसद, 
होती है निरी उथली - छिछली, 
बिन आधार की बातें,
जिनका न होता है कोई संपर्क समन्वय से...

टूट जाती है उस पल 
एक नन्ही सी आस 
जो छिपी बैठी रहती है ह्रदय की अंतस मे,
जिसने बुन रखा है स्वं का अंतरजाल 
और ढूढती है - 
कही दूर हो गई है जो उससे उसकी आस...

जो देखी थी उसने 
इन्ही समन्वय और संभाषणों के बीच,
मगर फिर मिला उसे 
कोरा आश्वासन, 
झूठी मंत्रणा और निराधार शुष्क ज़मीन... 

मंगलवार, 20 मार्च 2012

हे मन!

अजीब उलझनों मे
घिर जाता है मन
किसी सवाल का
जब जवाब
ढूंढ़ नहीं पाता...
उलझता चला जाता है
वो स्वं मे ही,
बहुत भीतर
गहराई तक
खोज पाने को जवाब...


मगर फिर,
अचानक ही टूटती है
उसकी तन्द्रा,
ज्यूँ ध्यान मग्न
मन में कुछ
अनचाही अभिव्यक्ति
ढूढ़ ली हो,
और पूछा हो प्रश्न,
खुद से ही
उत्तर पाने की आस से,
पर खड़ा निरुत्तर,
असमर्थ ढूंढ़ पाने मे
उचित उत्तर...


क्यों???
चीखता मन;
कई बार
बार - बार चीत्कारता,
आह अंतर - आत्मा से उठती....
भटकता; इधर - उधर,
हर - तरफ ,
मगर हाथ
अंधेरो के
अंतिम छोर को टटोलकर
वापस चले आते...


हे मन!
क्यों तू है
इतना व्यथित,
फिर आज,
श्वास हो रही निश्वास,
आस टूट रही - एक बार
पुकारती
जाने क्या छोर
के उस पार
पता नहीं क्यों है
उसे एक टूट ती सी आस,
कोई है तो जरुर
उस छोर के पार !!


रविवार, 26 फ़रवरी 2012

खुश्बू बन तुझ-मे ही समां जाऊ

तुझे लफ़्ज़ों में बयां करूँ ये मेरे लिए मुमकिन नहीं,
तुझे हाले-दिल अपना मैं कहूँ ये मेरे लिए मुमकिन नहीं,
क्यूँ खो गए तुम इन घनेरी गहराते अंधेरों में?
चीर के रख दूँ दिल ये मेरे लिए मुमकिन नहीं, क्यूँ नहीं...

लौटा न पाएंगे वो पल, वो लम्हे, जो साथ तेरे जिए हमने. . .
वो जादू था अलग जिस रंग मे तूने रंगा हमें,
जो है और जो रहेगा क़यामत तलक साथ मे मेरे,
जो हो न पायेगा जुदा कभी भी कभी मुझसे...

तुझे यादों में जिंदा रखेंगे ,
दुआ है उस खुदा से जब तक सीने मे ये दिल धडके,
मेरी साँसों के साथ बस रिश्ता प्यारा बन के ये बस ले,
तेरी खामोशियों में रहूँ खामोश,
बातों में तेरी खुद को ग़ज़ल मे बना डालू...

होंटों पर हर पल गुनगुनाऊ तुझे,
या लम्हा-लम्हा तेरी यादूं मे समां जाऊ,
आरज़ू है ये मेरी,
लिपट जाऊ बदन से तेरे या खुश्बू बन तुझ-मे ही समां जाऊ!!!

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

एक नए परिनिर्वाण के लिए...

जिन्दगी के पलड़े मे
कई बार
सुख और दुःख के बीच
फैसला करने मे जब
खुद को कमजोर पाते हैं,

हम मौको से नहीं
अंतरआत्मा से पूछ आते हैं...
कुछ समझ न पाएं तो
एक दिल की आवाज या चाहत के जागने तक,

कुछ सिम्त ठहर कर
खुद को रोक लेते हैं
और चाहतो को दबा लेते हैं ...
एक जिजीविषा के निर्माण के लिए ..

एक नए परिनिर्वाण के लिए...

बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

बेटियाँ

बेटियाँ रिश्तों-सी पाक होती हैं
जो बुनती हैं एक शाल
अपने संबंधों के धागे से।

बेटियाँ धान-सी होती हैं
पक जाने पर जिन्हें
कट जाना होता है जड़ से अपनी
फिर रोप दिया जाता है जिन्हें
नई ज़मीन में।

बेटियाँ मंदिर की घंटियाँ होती हैं
जो बजा करती हैं
कभी पीहर तो कभी ससुराल में।

बेटियाँ पतंगें होती हैं
जो कट जाया करती हैं अपनी ही डोर से
और हो जाती हैं पराई।

बेटियाँ टेलिस्कोप-सी होती हैं
जो दिखा देती हैं–
दूर की चीज़ पास।

बेटियाँ इन्द्रधनुष-सी होती हैं, रंग-बिरंगी
करती हैं बारिश और धूप के आने का इंतज़ार
और बिखेर देती हैं जीवन में इन्द्रधनुषी छटा।

बेटियाँ चकरी-सी होती हैं
जो घूमती हैं अपनी ही परिधि में
चक्र-दर-चक्र चलती हैं अनवरत
बिना ग्रीस और तेल की चिकनाई लिए
मकड़जाले-सा बना लेती हैं
अपने इर्द-गिर्द एक घेरा
जिसमें फँस जाती हैं वे स्वयं ही।

बेटियाँ शीरीं-सी होती हैं
मीठी और चाशनी-सी रसदार
बेटियाँ गूँध दी जाती हैं आटे-सी
बन जाने को गोल-गोल संबंधों की रोटियाँ
देने एक बीज को जन्म।

बेटियाँ दीये की लौ-सी होती हैं सुर्ख लाल
जो बुझ जाने पर, दे जाती हैं चारों ओर
स्याह अंधेरा और एक मौन आवाज़।

बेटियाँ मौसम की पर्यायवाची हैं
कभी सावन तो कभी भादो हो जाती हैं
कभी पतझड़-सी बेजान
और ठूँठ-सी शुष्क !

रविवार, 29 जनवरी 2012

और बस तुम...

एक एहसास, एक जज़्बात, मेरी आस,
और बस तुम...

एक सवाल, एक जवाब,तुम्हारा ख्याल,
और बस तुम...

एक बात, एक रात, तुम्हारा साथ,
और बस तुम...

एक दुआ, एक फ़रियाद, तुम्हारी याद,
और बस तुम...

मेरा वजूद, मेरा जूनून, मेरा सुकून,
बस तुम! और बस तुम !!!