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गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

रिश्तो की सुनामी

पलकों की
चिलमन से
झांकता एक सपना,
नित नए
राज़ों को
खोलता है,

आहिस्ता-आहिस्ता
दबे पावँ
चला आता है,.
चुपके से
मेरे आँचल मे
सो जाता है!!

हर नया दिन
एक नयी आस
जगाता है,

आकाश को
देखकर मेरा मन
उसे छूने को
मचल जाता है,

चाहती हूँ,
नापना
सागर की गहरायी,
तोतली एक बोली
जो राज को
हो खोलती,

चाह है खेलूं
सागर की सिलवटों से
लिपटकर,
झूम जाऊ
लहर्रों मे
सिमटकर,
भर लू गोद मे
सारे तूफ़ान,
कि फिर कभी
न आये सुनामी

मौसम के
नए नज़ारे
जो हर पल
दिल संवारे,
बिखरा दे नया संगीत,
होंठों पर दे
फिर नया गीत,

महक जायें
खुले गेसुओं से
हर पल नए फ़साने,
बादलों की छिट-पुट,
बारिशों की टिप-टिप,
मौजो का मचलना,
दिल का बहकना,
क्यों हो रहा है ये आज,
सब कुछ एक साथ,

महताब मेरे!
राज़ो के रियासतदार,
कहती है ये मंजरी
मेहराबों को देखते जाना,
ऊँचाइयों को छुना,
रिश्तो के बिखराव को
दिल मे समेट लेना!

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

एक दिन


याद नहीं पर आपसे बांटनी थी तो डायरी के पन्नो से निकाल कर सौप दी आपके सामने ये नज़्म...

वो लोग
जो जिन्दा हैं
वो मर जायेंगे
एक दिन,

एक रात के
रही हैं,
गुजर जायेंगे
एक दिन,
यूं है के
मोहब्बत से
टकरा जायेंगे
एक दिन,

दिल आज भी
जलता है
उसी तेज़
हवा में,
ये तेज़ हवा
देख बिखर जायेंगे
एक दिन,

यूं होगा कि
इन आँखों से
आंसू बहेंगे,
ये चाँद सितारे
भी ठहर जायेंगे
एक दिन,

अब घर भी नहीं
घर कि तमन्ना
भी नहीं,
बहुत दिन पहले
सोचा था
घर जायेंगे
एक दिन!!!

लफ्ज़

मेरी पूंजी है
यही लफ्ज़,
यही थोड़े से लफ्ज़,
मुफ्त का
माल समझकर
हम लुटाते रहे,
इस बेपनाह दौलत को,
जिस तसव्व्रुर के लिए
एक ही लफ्ज़ बहुत था,
उसे सौ लफ्ज़ दिए,


मैं एक शायर की
आवारा शायरी थी,
मुझको ये फिक्र न थी,
मुझको ये मालूम न था,
लफ्ज़ भी घिसते हैं,
मिटते हैं,
बिखर जाते हैं,
लफ्ज़ बीमार भी पड़ते हैं,
और एक रोज़ लफ्ज़ भी
हमारी आपकी तरह
मर जाते हैं,


मुझको मालूम न था,
की हर एक लफ्ज़ को
सदियों ने संवारा होगा,
ये जो आये हैं,
इन्हें कितनो ने
पुकारा होगा,
मैं लुटाती रही
इस बेपनाह दौलत को,
और जबकि
ज़माने के लिए,
बताने को मेरे दिल में
कई किस्से हैं,
कई बातें हैं,
हैरान देखती हूँ,
मैं मेरे पास
कोई लफ्ज़ नहीं!!!

गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

आँखे

आँखे!!!
वो पनीली सी,
डबडबाई हुई...

बिना कुछ कहे
सब बयां कर देती हैं...
होठ सिले हो
फिर भी...
जाने क्यों
चीखती हैं आँखे....


तुम कहते हो
मैं बोलूं...
होंठो को खोलूं....
पर मै
सोचती हूँ,
क्या बोलूं ?
सिले लब
कैसे खोलूं?


तुम तो
मगन हो
अपनी दुनिया में...
कभी फुर्सत मिले...
तो पढ़ लेना...
क्या कहती हैं...
मेरी आँखे!!!!!!!!

जिंदगी

बड़ी गैर है
जिंदगी
तेरी मंजरी,

बड़ी भोली है
जो तूने इस पर
कर लिया
यकीन

हुई है ये कभी
किसी की
जो तेरी होगी,

खुशियाँ भी
कभी गम के
साकी हुई,

माफ़ कर
ऐ गुनहगार
दिल मेरे

मुझको बता,
क्यों?
तुझपे ऐतबार
इतना ख़ास सा था,

इकरार किया
झूठा वफ़ा था,
या कि वो
प्यार ही न था ?

बुधवार, 15 सितंबर 2010

पहल आपसे हो ...

कभी-कभी
यूं ही एक
मुस्कुराता सा चेहरा;
मेरी आँखों मे
तैर जाता है,
अपनी प्यारी सी
हंसी से,
मुझे सुकून
पंहुचा जाता है,
मगर जब
कभी भी
उस हंसी को,
उस एहसास को
ढूंढ पाने को,
उसमे समां जाने को,

महसूस कर पाने;
उसका अपनापन
और पा जाने को
सारा आकाश,
मै जब
बेचैन हो उठती हूँ,
देखती हूँ,
ढूंढती हूँ,
तलाश करती हूँ,
उसे अपने आस पास
मगर
हासिल होता है;
सिर्फ और सिर्फ
सिसकती आह ...

क्यों???
जवाब चाहती हूँ
मै आपसे,
क्यों गाएब है
वो प्यारी मुस्कान,
जो आपके
खुद के होने का एहसास
आपके साथ रखती है,
जुदा नहीं होने देती
आपको आपसे ही,
क्यों खो से गए है
ये एहसासात!
जो आपके अंदर है,
इसलिए उठो,
ढूंढो,
खोजो और
पहचानो
खुद मे छुपी
उस मुस्कान को,
पा जावोगे जवाब
खुद-ब-खुद
इसलिए चाहती हूँ
कि यह
पहल आपसे हो ...

बुधवार, 28 जुलाई 2010

पापा का ब्लॉग

पापा का ब्लॉग एक बार अवश्य आइये!
मेरे गुरु, मेरे सृजक, मेरी हर धारणा का आधार

http://pragyan-vigyan.blogspot.com/


सोमवार, 26 जुलाई 2010

गांधारी

चलो चलें
एक ऐसे युग में,
करें पुरानी बात,
याद दिलाएं
कुछ सुलझाएं,
सुनी अनसुनी राग!

युग है द्वापर,
नाम गांधारी,
सती उसे सब मानें,
पति-धर्म की
पावन धरा की
पतिव्रता पहचानें,
पति-धर्म निभाने,
उसने बांध नयन पर पट्टी,
चली उसी डगर संग
चले जिधर "कुंवर जी!"

साथ निभाया
कुंती का भी,
भगिनी धर्म निभाया,
पर क्या
माँ के पावन रूपों का
भी उसने फ़र्ज़ निभाया?
बात करें जब बीच सभा
में सबने चुप्पी थी ठानी
माँ का धर्म निभाती;
क्या करती रही गांधारी?

वक़्त था पति को
राष्ट्र-धर्म के मर्मों
को समझाती,
नहीं समझ थी
धृतराष्ट्र की आँखें
वो बन जातीं
माँ थी सबकी,
बड़ी थी सबसे,
प्रिय चहेती सबकी
अर्जुन-भीम-युधिष्टिर
संग दुर्योधन की
भी प्रिय थी

दिया कृष्ण को
श्राप मोहवश,
किया उन्होंने पक्षाघात,
क्यों नहीं दी
'दिव्यता' सबको
किया छल औ आघात
यदि चाहती
सबको साथ माला
में एक संजोकर,
नहीं होने देतीं
वो युद्ध "महाभारत"
महा-विध्वंसक!!

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

खुशियाँ समेट

अक्स किसका संजोया है
इन आँखों मे हमने,
बीत गए
दिन, महीने औ साल
न जान पाए
उस अक्स मे
है कौन शख्स?

किसका अरमान है
दिल मे है कौन?
कौन है
इन धडकनों मे आज?

सिर्फ महसूस होती है
एक आवाज
अपने आस पास
एक ख़ास
जो कहती है

अपने होने का एहसास मत खो
मत जाने दे आज
जो तुझमे है
जो तू है,
क्यों खोती जा रही है
तू खुद को
आजा अपने करीब आ
पहचान ले खुद को
खुद के नसीब को
छोड़ दे उसे
जो तेरा नहीं है
अपने दामन मे
अब बस खुशियाँ समेट!

तेरा साथ

रहा कुछ अपने मन का, कुछ औरो से सुना हमने
तेरी की जुस्तजू खुद को किया तन्हा हमने!

हर रात सुना है तन्हा हो जाते है लोग
यहाँ तो पल पल अपने तन्हा किए हमने!!

हर सिम्त सिमटती है मेरे अपने होने की आस,
लम्स है कि जज्बात पिरोये है हमने!

दूर होती जाती है यूं मेरे बदन की खुशबू,
रख छोड़ा हो गुलाब सदियों से किताब मे हमने!!

सांस लेना सिर्फ नाकाफी है जीने के लिए,
मेरे माही, या इलाही तेरा साथ माँगा हमने!

मौत आनी है तो आये वो बेशक आये,
बस एक बार तेरा साथ माँगा है हमने!!

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

प्यार की माटी

हमने सबको प्यार दिया, पर सबने की मनमानी,
दिल मे मेरे कब क्या था, ये किसी ने न पहचानी

प्यारा दिल था, सच्चे थे प्यारे इसके एहसास,
क्यों नहीं हुई पूरी फिर इस सच्चे से नन्हे दिल की आस,

आस लगायी नहीं थी क्यूंकि मैंने था जाना,
आशाएं ही दे जाती हैं; इक दिन घोर निराशा,
पर दिल का क्या वो तो निश्छल सा था प्यारा,
ज्यो हो किसी माँ की गोदी मे नन्हा कोई दुलारा!

दिल था वह तो मांग किसी से कुछ भी कभी न पाता,
पर बस बदले प्यार के थोडा प्यार उसे ललचाता,
रहता वह बस इंतज़ार मे, कौन है कितना प्यारा,
कौन दिलाये उसे भी उसका प्रतिबिम्ब वो प्यारा,

क्या गलती की, उसने तो सबको ही अपनाया,
कौन था अपना कौन पराया, कभी नहीं जतलाया,
स्वम उसी के दिल ने उसको कितना भरमाया,
पर आगे दिल के उसकी एक नहीं चल पाया,

नहीं नापा कभी किसी को किसी कसौटी रखकर,
नहीं तोलना चाहा कभी कि किसकी कितनी माटी,
किस माटी से कौन बना, है किसमें कितना प्यार,
दिया सभी को एक बराबर उसने प्यार का वो एहसास,
नहीं मिला फिर क्यों उसको उसकी माटी का प्यार,
माटी था वो माटी मे मिलना किया न क्यों स्वीकार!!!

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

मोहब्बत - अपनों की

क्या हो गर छोड़ के दुनिया भी कुछ हासिल न हो,
बाद मुद्दत के भी अपनों की चाहतें नासिर न हो,


मोहब्बत बड़ी चीज़ है, जानते है सब ही,
फर्क इतना है हम-आप जताते है कोई और जताता नहीं!!

डरते है ज़माने की तनहाइयों से मगर खुद,
वो जो अपने हैं छोड़ जाते हैं तनहाइयों मे उन्हें,
नहीं महसूस कर पाते है उनके जज़्बात जो सच्चे है,
भागते है पीछे उन तितलियों के जो हैं ही नहीं!!

वक़्त गुजरते क्या लम्हे भी महसूस नहीं होते,
जब होते हैं सारे अपने साथ, महसूस कर पाते है हम उनके जज़्बात,
पर क्यों नहीं रह सकते साथ उनके, क्यों गुज़ार नहीं पाते ताउम्र साथ,
पूछते है जवाब खुद-ब-खुद, क्या वो हमारे अपने, अपने नहीं!!!
--

सोमवार, 28 जून 2010

अभीप्सा

"बड़े गौर से चाहती हूँ सोचना तुझे,
मगर तू है, कि दूर मेरी चाहतो मे शामिल है!!"

अभीप्सा है कुछ कर पाने की
कुछ कह जाने की
अपनाने की,
उनकी बन जाने की!

दिन-रात बीत जाते हैं, यूँ ही पल-प्रतिपल,
इच्छा है, उन्हें रोक पाने की,
कुछ गुनगुनाने की,
मन की गुत्थी सुलझाने की,
गुम्फित सा क्या है, मन में,
समझ जाने की,
बता पाने की,

रात-औ-दिन का बीतना; समय का अकेलापन सा लगता है,
इच्छा है, उनके लम्हों मे खो जाने की,
उन्हें अपनाने की, अपना बताने की,
कुछ कही - कुछ अनकही; सुनाने की,

मन मे रखा हो ज्यो, कुछ नहीं; बहुत सा,
वह क्या है? जान पाने की,
आपको बताने की,
आपको समझाने की,
खुद समझ पाने की,
अभीप्सा है, हाँ यही इच्छा है, यही जिजीविषा है!!
--

बुधवार, 10 मार्च 2010

टूटके बिखर जाते तो अच्छा था.......
राहों पे निकल गए ये क्या बात है,
राहों में बिखर जाते तो अच्छा था ......
बेदिली से मुस्कुरातें हैं आज हम,
दिल को यूं न बहलाते तो अच्छा था......
रन्जो गम के बन गए हैं अब हम,
बाशिंदे यूं दिल ही न किसी से लगाते तो अच्छा था......
मुस्कुराहटों का उन के होंठों न आना जला गया हमें यूं
कि उनके पास हम ना जाते तो अच्छा था......
मैंने देखी हैं कुछ सच्चाई है तेरी आँखों में,
मैंने देखी है कुछ नाराजगी सी तेरी आँखों में,
मैंने देखें हैं कुछ टूटे किरचे बिखरे काँच के,
मैंने देखें हैं रात भर जागती आँखों में फिर भी सपने हैं,
मैंने चाहा है हर पल उन सपनो को अपनो की तरह,
सजा के रखना अपने माथे पे, छुपा के रखना अपने आँचल में,
हर लफ्ज जो तुम कह भी न पाओ उन्हें महसूस करने की ख्वाहिश लिए बैठे हैं,
आपकी आँखों के उठती चिल्मन का दीदार लिए बैठें हैं
हर आह जो एक ख़ास पल की है, एक नयी आस की है,
मीर मेरे, मेरे माही, मेरे हमराज़ बन,
तुझमें ख़ाक हो जाने की तमन्ना ख़ास लिए बैठें हैं!!

मंगलवार, 2 मार्च 2010

"अहमियत शब्दों की"

यू तो बहुत हैं बातें कहने की मगर किससे कहें हम,
कब तक खामोश रहें और यू ही सहते रहे हम,
नहीं किसी और की नहीं; अपनी ही अंतरदशा की कहानी,
सुनने में लगेगी अजीब-अकेली-अनजानी...

मालूम न थी मुझे शब्दों की ये अहमियत,
बाद एक मुद्दत के समझ पाई मै इसकी हकीकत,
और शायद यह हकीकत ही भारी पड़ गयी मुझपर,
कहना था जो किसी से कह न सके अपनी जिन्दगी भर,