स्वागतम

आपका हमारे ब्लॉग पर स्वागत,

आपके सुझाव और सानिध्य की प्रतीक्षा मे

लिखिए अपनी भाषा में

गुरुवार, 25 अगस्त 2011

हम जी भर के रोया करते थे...



बचपन के
दुःख भी
कितने
अच्छे होते थे...


तब तो
सिर्फ
खिलौने
टूटा करते थे...


वो खुशियाँ
जाने कैसी
खुशियाँ थी???

तितली के
पर नोच के
उछला करते थे...

मार के पाँव
कुछ
बारिश के
पानी में,
अपनी कश्ती
आप डुबोया
करते थे...


सोचते हैं तो
चोट सी
दिल पर लगती है,
अपने बनाए
घरोंदे आप
तोड़ा करते थे...



अपने जल जाने
का कुछ
अहसास न था,
जलते हुवे
शोलो को
छेड़ा करते थे...

खुशबू के
उड़ते ही क्यों
मुरझाता है फूल???
कितने
भोलेपन से
पूछा करते थे...

आज
इनकी ताबीर
और रुलाती है,
बचपन में
जो अपने
देखा करते थे...


अब तो
आंसू का
एक कतरा भी
रुसवा कर जाता है,
बचपन मे
हम जी भर
के रोया करते थे...

सोमवार, 15 अगस्त 2011

मोहब्बत करनी छोड़ दी हमने!!!

तुमसे कह दिया किसने,
के तुम बिन रह नहीं सकते...
ये दुःख हम सह नहीं सकते...

चलो हम मान लेते हैं
के तुम बिन हम बहुत रोये...
के रातों को न हम सोये...
मगर अफ़सोस है जाना!!!

के अबके तुम जो लौटोगे...
हमें बदला सा पाओगे...
बहुत मायूस होगे तुम
अगर तुम पूछना चाहो...

के ऐसा क्यूँ किया हमने???
तो सुन लो गौर से जाना...
पुरानी एक रिवायत,
तंग आकर तोड़ दी हमने ...

मोहब्बत करनी छोड़ दी हमने!!!

शनिवार, 13 अगस्त 2011

अंतर- भारतवर्ष और इंडिया में!



किसको, इस देश को?
इस 'इंडिया' को? इंडिया कहे जाने वाले भारत को?
हाँ, जानती तो हूँ, पर अधिक नहीं !
जानती-पहचानती हूँ, उस "भारतवर्ष" को -
जो कभी कहलाता था - "सोने की चिड़िया"
लेकन कभी संग्राहक नहीं था, सोने का!!
था जिसे विश्वास त्यागमय भोग पर,
था जिसका आदर्श सूत्र - "तेन त्यक्तेन भुजिथा"!!!

जानती हूँ मैं, उस भारत्वढ़ को,
जहाँ, ठुराए गए थे, 'राजमुकुट'!
जहाँ, मरी गयी थीं ठोकरें,
विलासिता को, राज्य को, साम्राज्य को!!
जहाँ, योग्यता और प्रतिभा महलों मे नहीं,
आरण्यको-जंगलों मैं बस्ती थी!
जहाँ वृक्ष, काटे नहीं पूजे जाते थे!!
और यह समाज,
अरण्य और अरन्यकों का शोषण नहीं,
भरपूर, पर्याप्त पोषण करता था!!!
प्रतिभाएं करती थी तो और शोध,
राज्य की समृधि के लिए!
और राज्य रहता था कृतज्ञ, इस त्याग - तपस्या हेतु!!!

जानती हूँ उस भारत को,
जहाँ तौल दिया गया था,
अपने ही शारीर का मांस, कटकर निज-हांथों,
किसी पशु-पक्षी की प्राण रक्षा हेतु!!
जहाँ चलाये गए थे आरे, माता-पिता द्वारा
अपने ही पुत्र को दो पहाड़ करने के लिए,
सत्य और संस्कृति की संरक्षा के लिए!!!

जहाँ लिया गया था 'कर'
पिता द्वारा अपने ही मृत पुत्र की अंत्येष्टि के लिए!
विलाप करती दुखियारी पत्नी से,
अंग-लिपटी हुयी फटी साडी का अर्धभाग!
बात निष्ठा के साथ, कर्त्तव्य पालन की जो थी!!!

जानती हूँ, उस भारतवर्ष को,
जहाँ के राजकुमार शेर के दन्त गिनते थे,
जहाँ के क्षत्रप, शेरनी का दूध लाते थे!
जहाँ की धाय भी, देश भक्ति के नाम पर,
अपने कलेजे के टुकड़े को, राजकुमार बता,
आँखों के समक्ष, बलिदान कर देती थी,
लेकिन राज्य को विधर्मियों से बचा लेती थी!!

जानती हूँ, उस भारतवर्ष को भी,
जब नेतृत्व भटक गया गया था, बुद्धि-विवेक-नेत्रों पर पट्टी बांध लिया था,
सोने की चकाचौंध में,
तब सत्य और न्याय के लिए,
यहाँ हुआ करता था कभी - 'महाभारत'!!
उस महाभारत से निकला था - 'गीतामृत'!
जिसे कर सकते हैं हम सब, आज भी "पान"
लेकिन करते नहीं!!!

यादे कर रहे होते
क्यों दिखती ऐसी अराजकता?
ऐसे अनाचार, अत्याचार और भ्रष्टाचार??
क्यों जानू ऐसे इंडिया को जहाँ कंक्रीट और सीमेंट ही नहीं,
गटक लिए जाते हैं जहाँ पूरी की पूरी सड़क और पुल !!!

शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

जाने के लिए मत आना ...

अब अगर आओ तो जाने के लिए मत आना,
सिर्फ एहसान जताने के लिए मत आना...

मैंने पलकों पे तमन्नाएं सजा रखी है,
दिल में उम्मीद की सुबह-ओ-शामें जला रखी हैं...

यह हसीं शामें बुझाने के लिए मत आना,
अब अगर आओ तो जाने के लिए मत आना...

प्यार की आग में जंजीरें पिघल सकती हैं,
चाहने वालों की तकदीरें बदल सकती हैं ...

तुम हो बेबस ये बताने के लिए मत आना,
अब अगर आओ तो जाने के लिए मत आना ...

बुधवार, 3 अगस्त 2011

दौर जिन्दगी का

एक दौर जिन्दगी का
वो भी याद है हमको जहाँ

खेतों में दौड़ते
बैलो के पीछे ...
बच्चों के खिलखिलाते
चेहरों के पीछे ...
खेतों मे लहलहाते
फसलों के पीछे ...
हाथ
हमने देखे हैं
एक किसान के,
एक मेहनती बाप के,
जो एक किसान - बाप है!!!

जिसे गर्व है अपने
किसान होने का,
कमाने मेहनत
की रोटी का,
पढाने सीना तान
के अपने बच्चों
पसीना जब वो बहाते;
उस बहते पसीने का,

गर्व करते लहलहाती फसलों पर
खिलखिलाती मुस्कुराहटों पर
खीच ले जो एक नज़र
उड़ाती चुनर उस धनक पर...

जहाँ मरने का ख्याल
भी न आता था,
मन सोच ही
घबराता था,
मन मे खौफ
समां जाता था ,
अपने बैलो,
अपने खेतों,
अपने बच्चों,
अपने रंगीन सपनो,
अपनी यादों मे ही
किसान चैन पाता था..

आज दबा है क़र्ज़ में,
सना है अपने ही
रंगीन फ़र्ज़ में,
मजबूर है,
कर रहा महसूस
जीने मे क्या अर्श है,
क्या यही
सच्चाई की फर्श है???

दबता जा रहा
खुद के किये
फैसलों के नीचे,
ज्यों जमीन
उसे खुद मे
समाने के लिए खीचे,
दौर-ए-बदलाव से
हैरानगी है उसे खुद ही,
अजीब कशमकश मे,
उलझा ली है उसने
खुद की जिंदगी!!!

और दौर यू
बदला है यारों,
जहा किसान को,
यू कहें गरीब को
मरने की जल्दी..
इसलिये भी है क्योंकि

जिन्दगी की
कश्मकश मे कहीं
महंगा "कफ़न"
ना हो जाए
सो भी न पाएं चैन से
मिटटी भी
नम न हो जाए...

दौर जिन्दगी का

एक दौर जिन्दगी का
वो भी याद है हमको जहाँ

खेतों में दौड़ते
बैलो के पीछे ...
बच्चों के खिलखिलाते
चेहरों के पीछे ...
खेतों मे लहलहाते
फसलों के पीछे ...
हाथ
हमने देखे हैं
एक किसान के,
एक मेहनती बाप के,
जो एक किसान - बाप है!!!

जिसे गर्व है अपने
किसान होने का,
कमाने मेहनत
की रोटी का,
पढाने सीना तान
के अपने बच्चों
पसीना जब वो बहाते;
उस बहते पसीने का,

गर्व करते लहलहाती फसलों पर
खिलखिलाती मुस्कुराहटों पर
खीच ले जो एक नज़र
उड़ाती चुनर उस धनक पर...

जहाँ मरने का ख्याल
भी न आता था,
मन सोच ही
घबराता था,
मन मे खौफ
समां जाता था ,
अपने बैलो,
अपने खेतों,
अपने बच्चों,
अपने रंगीन सपनो,
अपनी यादों मे ही
किसान चैन पाता था..

आज दबा है क़र्ज़ में,
सना है अपने ही
रंगीन फ़र्ज़ में,
मजबूर है,
कर रहा महसूस
जीने मे क्या अर्श है,
क्या यही
सच्चाई की फर्श है???

दबता जा रहा
खुद के किये
फैसलों के नीचे,
ज्यों जमीन
उसे खुद मे
समाने के लिए खीचे,
दौर-ए-बदलाव से
हैरानगी है उसे खुद ही,
अजीब कशमकश मे,
उलझा ली है उसने
खुद की जिंदगी!!!

और दौर यू
बदला है यारों,
जहा किसान को,
यू कहें गरीब को
मरने की जल्दी..
इसलिये भी है क्योंकि

जिन्दगी की
कश्मकश मे कहीं
महंगा "कफ़न"
ना हो जाए
सो भी न पाएं चैन से
मिटटी भी
नम न हो जाए...