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गुरुवार, 15 जुलाई 2010

प्यार की माटी

हमने सबको प्यार दिया, पर सबने की मनमानी,
दिल मे मेरे कब क्या था, ये किसी ने न पहचानी

प्यारा दिल था, सच्चे थे प्यारे इसके एहसास,
क्यों नहीं हुई पूरी फिर इस सच्चे से नन्हे दिल की आस,

आस लगायी नहीं थी क्यूंकि मैंने था जाना,
आशाएं ही दे जाती हैं; इक दिन घोर निराशा,
पर दिल का क्या वो तो निश्छल सा था प्यारा,
ज्यो हो किसी माँ की गोदी मे नन्हा कोई दुलारा!

दिल था वह तो मांग किसी से कुछ भी कभी न पाता,
पर बस बदले प्यार के थोडा प्यार उसे ललचाता,
रहता वह बस इंतज़ार मे, कौन है कितना प्यारा,
कौन दिलाये उसे भी उसका प्रतिबिम्ब वो प्यारा,

क्या गलती की, उसने तो सबको ही अपनाया,
कौन था अपना कौन पराया, कभी नहीं जतलाया,
स्वम उसी के दिल ने उसको कितना भरमाया,
पर आगे दिल के उसकी एक नहीं चल पाया,

नहीं नापा कभी किसी को किसी कसौटी रखकर,
नहीं तोलना चाहा कभी कि किसकी कितनी माटी,
किस माटी से कौन बना, है किसमें कितना प्यार,
दिया सभी को एक बराबर उसने प्यार का वो एहसास,
नहीं मिला फिर क्यों उसको उसकी माटी का प्यार,
माटी था वो माटी मे मिलना किया न क्यों स्वीकार!!!

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