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मंगलवार, 20 मार्च 2012

हे मन!

अजीब उलझनों मे
घिर जाता है मन
किसी सवाल का
जब जवाब
ढूंढ़ नहीं पाता...
उलझता चला जाता है
वो स्वं मे ही,
बहुत भीतर
गहराई तक
खोज पाने को जवाब...


मगर फिर,
अचानक ही टूटती है
उसकी तन्द्रा,
ज्यूँ ध्यान मग्न
मन में कुछ
अनचाही अभिव्यक्ति
ढूढ़ ली हो,
और पूछा हो प्रश्न,
खुद से ही
उत्तर पाने की आस से,
पर खड़ा निरुत्तर,
असमर्थ ढूंढ़ पाने मे
उचित उत्तर...


क्यों???
चीखता मन;
कई बार
बार - बार चीत्कारता,
आह अंतर - आत्मा से उठती....
भटकता; इधर - उधर,
हर - तरफ ,
मगर हाथ
अंधेरो के
अंतिम छोर को टटोलकर
वापस चले आते...


हे मन!
क्यों तू है
इतना व्यथित,
फिर आज,
श्वास हो रही निश्वास,
आस टूट रही - एक बार
पुकारती
जाने क्या छोर
के उस पार
पता नहीं क्यों है
उसे एक टूट ती सी आस,
कोई है तो जरुर
उस छोर के पार !!