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गुरुवार, 19 मई 2011

प्रश्न : आस्था - विश्वास का

आस्था-विश्वास
या हो
स्वयं प्रश्न तुम,
कभी सोचा
तुमने
क्यों
मौन सी तुम,


प्रस्तर कभी,
प्रतिमा कभी
बन सी जाती हो,
क्यों नहीं
उस प्रस्तर की
प्रतिमा कहलाती हो !

उठती - गिरती
स्वयं तुम्हारी
मष्तिष्क तरंगे
क्यों नहीं दे पाती -
तुम्हे
तुम्हारी पहचान !

मान
क्यों नहीं देता
तुम्हे
तुम्हारे होने का भान !

क्या प्रस्तर से
प्रतिमा बन
तेरा अहम्
पूर्ण हो जायेगा ???

क्या तेरा विश्वास
तेरी आस्था
तुझे मिल जायेगा?
इन प्रश्नों के
उचित उत्तर
ढूँढने हैं अभी ...

जिस दिन,
जिस पल,
मिल जाएगी
मेरी प्रतिछाया
उस पल पूरी हो जाएगी
मेरी मोह की माया !
पूरा हो जायेगा
मेरा विश्वास, मेरी आस्था !!

8 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

क्या प्रस्तर से
प्रतिमा बन
तेरा अहम्
पूर्ण हो जायेगा ???

क्या तेरा विश्वास
तेरी आस्था
तुझे मिल जायेगा?
इन प्रश्नों के
उचित उत्तर
ढूँढने हैं अभी ...

मन के गहन भावों की कश्मकश को कहती अच्छी रचना

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 24 - 05 - 2011
को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

साप्ताहिक काव्य मंच --- चर्चामंच

vandana gupta ने कहा…

्बेह्द उम्दा अभिव्यक्ति।

M VERMA ने कहा…

अंतर्मन को उकेरती रचना

Er. सत्यम शिवम ने कहा…

bhut hi sundar rachna...laazwaab lekhni hai aapki

आशुतोष की कलम ने कहा…

क्या प्रस्तर से
प्रतिमा बन
तेरा अहम्
पूर्ण हो जायेगा ???

बहुत सुन्दर कविता ..मगर प्रस्तर से प्रतिमा का बनाना अहम् पूर्ति से ज्यादा श्रधा का अतिरेक हो कर अपनी चरम स्थिति को प्राप्त कर लेना होता है..

Unknown ने कहा…

आशुतोष जी, आप हमारे ब्लॉग पर आये और अपने विचारों से हमें अवगत कराया, प्रसन्नता हुयी,

आपके अनुसार, "प्रस्तर से प्रतिमा बनना अहम् का पूर्ण होना" यह पंक्ति अविधा न होकर लक्षणा का भाव स्वं मे लिए हुए है!!

रविकर ने कहा…

मित्रों चर्चा मंच के, देखो पन्ने खोल |
आओ धक्का मार के, महंगा है पेट्रोल ||
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