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मंगलवार, 29 नवंबर 2011

आधार तेरा है!!!


पतझड़ मे डाली से
पत्तों का गिरना,
मौसम बदलने पर
यादों का उलझना,
रोने के बाद
चेहरे का चमकना,
ज्यू बारिश के बाद
पक्षियों का चहकना !!!

अजीब बेकली,
थोड़ी सी अकुलाहट,
मन के भीतर का रुदन,
उस पर पड़ी धूल की सरसराहट,
प्यार का समंदर
अथाह पड़ा हो
ज्यू तेरे आस पास,
पकड़ना हो तुझे
यों ही कुछ दूर
हाथ बढाकर,
ज्यू बारिश की
बूंदों का लगातार बरसना,
उनके खुले हुए
रंगों का
ओस बनकर टपकना
मदमस्त चमकते
चटकीले रंगों का
उछालना-मटकना!!!

अंत हो जाना
मन के सारे रुदन का,
पिछले पहर
ज्यू छिपा हो सूरज
और बाकी हो उसकी लालिमा,
याद दिलाती हो
समझने को
जो तुममे है उर्जा,
अपने भीतर की
छिपी शक्ति को
समेट मत, उसे जान,

आत्मा की आवाज़
बुलंद कर,
उसे पहचान,
आत्म मंथन से
मन का क्रंदन कर बंद,
हंसा दे उसे,
उसकी मुस्कराहट को जगा दे,

खींच ला
छिपी-सोयी-दबी
अकुलाहट को,
फेंक दे उसे;
सम्भाल आने वाली
नयी मानसी आहट को,
फिर से चमक
पूरे आकाश पर
शान से,
पूरा आकाश और
उसकी जगमगाहट का
आधार तेरा है!!!

गुरुवार, 25 अगस्त 2011

हम जी भर के रोया करते थे...



बचपन के
दुःख भी
कितने
अच्छे होते थे...


तब तो
सिर्फ
खिलौने
टूटा करते थे...


वो खुशियाँ
जाने कैसी
खुशियाँ थी???

तितली के
पर नोच के
उछला करते थे...

मार के पाँव
कुछ
बारिश के
पानी में,
अपनी कश्ती
आप डुबोया
करते थे...


सोचते हैं तो
चोट सी
दिल पर लगती है,
अपने बनाए
घरोंदे आप
तोड़ा करते थे...



अपने जल जाने
का कुछ
अहसास न था,
जलते हुवे
शोलो को
छेड़ा करते थे...

खुशबू के
उड़ते ही क्यों
मुरझाता है फूल???
कितने
भोलेपन से
पूछा करते थे...

आज
इनकी ताबीर
और रुलाती है,
बचपन में
जो अपने
देखा करते थे...


अब तो
आंसू का
एक कतरा भी
रुसवा कर जाता है,
बचपन मे
हम जी भर
के रोया करते थे...

सोमवार, 15 अगस्त 2011

मोहब्बत करनी छोड़ दी हमने!!!

तुमसे कह दिया किसने,
के तुम बिन रह नहीं सकते...
ये दुःख हम सह नहीं सकते...

चलो हम मान लेते हैं
के तुम बिन हम बहुत रोये...
के रातों को न हम सोये...
मगर अफ़सोस है जाना!!!

के अबके तुम जो लौटोगे...
हमें बदला सा पाओगे...
बहुत मायूस होगे तुम
अगर तुम पूछना चाहो...

के ऐसा क्यूँ किया हमने???
तो सुन लो गौर से जाना...
पुरानी एक रिवायत,
तंग आकर तोड़ दी हमने ...

मोहब्बत करनी छोड़ दी हमने!!!

शनिवार, 13 अगस्त 2011

अंतर- भारतवर्ष और इंडिया में!



किसको, इस देश को?
इस 'इंडिया' को? इंडिया कहे जाने वाले भारत को?
हाँ, जानती तो हूँ, पर अधिक नहीं !
जानती-पहचानती हूँ, उस "भारतवर्ष" को -
जो कभी कहलाता था - "सोने की चिड़िया"
लेकन कभी संग्राहक नहीं था, सोने का!!
था जिसे विश्वास त्यागमय भोग पर,
था जिसका आदर्श सूत्र - "तेन त्यक्तेन भुजिथा"!!!

जानती हूँ मैं, उस भारत्वढ़ को,
जहाँ, ठुराए गए थे, 'राजमुकुट'!
जहाँ, मरी गयी थीं ठोकरें,
विलासिता को, राज्य को, साम्राज्य को!!
जहाँ, योग्यता और प्रतिभा महलों मे नहीं,
आरण्यको-जंगलों मैं बस्ती थी!
जहाँ वृक्ष, काटे नहीं पूजे जाते थे!!
और यह समाज,
अरण्य और अरन्यकों का शोषण नहीं,
भरपूर, पर्याप्त पोषण करता था!!!
प्रतिभाएं करती थी तो और शोध,
राज्य की समृधि के लिए!
और राज्य रहता था कृतज्ञ, इस त्याग - तपस्या हेतु!!!

जानती हूँ उस भारत को,
जहाँ तौल दिया गया था,
अपने ही शारीर का मांस, कटकर निज-हांथों,
किसी पशु-पक्षी की प्राण रक्षा हेतु!!
जहाँ चलाये गए थे आरे, माता-पिता द्वारा
अपने ही पुत्र को दो पहाड़ करने के लिए,
सत्य और संस्कृति की संरक्षा के लिए!!!

जहाँ लिया गया था 'कर'
पिता द्वारा अपने ही मृत पुत्र की अंत्येष्टि के लिए!
विलाप करती दुखियारी पत्नी से,
अंग-लिपटी हुयी फटी साडी का अर्धभाग!
बात निष्ठा के साथ, कर्त्तव्य पालन की जो थी!!!

जानती हूँ, उस भारतवर्ष को,
जहाँ के राजकुमार शेर के दन्त गिनते थे,
जहाँ के क्षत्रप, शेरनी का दूध लाते थे!
जहाँ की धाय भी, देश भक्ति के नाम पर,
अपने कलेजे के टुकड़े को, राजकुमार बता,
आँखों के समक्ष, बलिदान कर देती थी,
लेकिन राज्य को विधर्मियों से बचा लेती थी!!

जानती हूँ, उस भारतवर्ष को भी,
जब नेतृत्व भटक गया गया था, बुद्धि-विवेक-नेत्रों पर पट्टी बांध लिया था,
सोने की चकाचौंध में,
तब सत्य और न्याय के लिए,
यहाँ हुआ करता था कभी - 'महाभारत'!!
उस महाभारत से निकला था - 'गीतामृत'!
जिसे कर सकते हैं हम सब, आज भी "पान"
लेकिन करते नहीं!!!

यादे कर रहे होते
क्यों दिखती ऐसी अराजकता?
ऐसे अनाचार, अत्याचार और भ्रष्टाचार??
क्यों जानू ऐसे इंडिया को जहाँ कंक्रीट और सीमेंट ही नहीं,
गटक लिए जाते हैं जहाँ पूरी की पूरी सड़क और पुल !!!

शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

जाने के लिए मत आना ...

अब अगर आओ तो जाने के लिए मत आना,
सिर्फ एहसान जताने के लिए मत आना...

मैंने पलकों पे तमन्नाएं सजा रखी है,
दिल में उम्मीद की सुबह-ओ-शामें जला रखी हैं...

यह हसीं शामें बुझाने के लिए मत आना,
अब अगर आओ तो जाने के लिए मत आना...

प्यार की आग में जंजीरें पिघल सकती हैं,
चाहने वालों की तकदीरें बदल सकती हैं ...

तुम हो बेबस ये बताने के लिए मत आना,
अब अगर आओ तो जाने के लिए मत आना ...

बुधवार, 3 अगस्त 2011

दौर जिन्दगी का

एक दौर जिन्दगी का
वो भी याद है हमको जहाँ

खेतों में दौड़ते
बैलो के पीछे ...
बच्चों के खिलखिलाते
चेहरों के पीछे ...
खेतों मे लहलहाते
फसलों के पीछे ...
हाथ
हमने देखे हैं
एक किसान के,
एक मेहनती बाप के,
जो एक किसान - बाप है!!!

जिसे गर्व है अपने
किसान होने का,
कमाने मेहनत
की रोटी का,
पढाने सीना तान
के अपने बच्चों
पसीना जब वो बहाते;
उस बहते पसीने का,

गर्व करते लहलहाती फसलों पर
खिलखिलाती मुस्कुराहटों पर
खीच ले जो एक नज़र
उड़ाती चुनर उस धनक पर...

जहाँ मरने का ख्याल
भी न आता था,
मन सोच ही
घबराता था,
मन मे खौफ
समां जाता था ,
अपने बैलो,
अपने खेतों,
अपने बच्चों,
अपने रंगीन सपनो,
अपनी यादों मे ही
किसान चैन पाता था..

आज दबा है क़र्ज़ में,
सना है अपने ही
रंगीन फ़र्ज़ में,
मजबूर है,
कर रहा महसूस
जीने मे क्या अर्श है,
क्या यही
सच्चाई की फर्श है???

दबता जा रहा
खुद के किये
फैसलों के नीचे,
ज्यों जमीन
उसे खुद मे
समाने के लिए खीचे,
दौर-ए-बदलाव से
हैरानगी है उसे खुद ही,
अजीब कशमकश मे,
उलझा ली है उसने
खुद की जिंदगी!!!

और दौर यू
बदला है यारों,
जहा किसान को,
यू कहें गरीब को
मरने की जल्दी..
इसलिये भी है क्योंकि

जिन्दगी की
कश्मकश मे कहीं
महंगा "कफ़न"
ना हो जाए
सो भी न पाएं चैन से
मिटटी भी
नम न हो जाए...

दौर जिन्दगी का

एक दौर जिन्दगी का
वो भी याद है हमको जहाँ

खेतों में दौड़ते
बैलो के पीछे ...
बच्चों के खिलखिलाते
चेहरों के पीछे ...
खेतों मे लहलहाते
फसलों के पीछे ...
हाथ
हमने देखे हैं
एक किसान के,
एक मेहनती बाप के,
जो एक किसान - बाप है!!!

जिसे गर्व है अपने
किसान होने का,
कमाने मेहनत
की रोटी का,
पढाने सीना तान
के अपने बच्चों
पसीना जब वो बहाते;
उस बहते पसीने का,

गर्व करते लहलहाती फसलों पर
खिलखिलाती मुस्कुराहटों पर
खीच ले जो एक नज़र
उड़ाती चुनर उस धनक पर...

जहाँ मरने का ख्याल
भी न आता था,
मन सोच ही
घबराता था,
मन मे खौफ
समां जाता था ,
अपने बैलो,
अपने खेतों,
अपने बच्चों,
अपने रंगीन सपनो,
अपनी यादों मे ही
किसान चैन पाता था..

आज दबा है क़र्ज़ में,
सना है अपने ही
रंगीन फ़र्ज़ में,
मजबूर है,
कर रहा महसूस
जीने मे क्या अर्श है,
क्या यही
सच्चाई की फर्श है???

दबता जा रहा
खुद के किये
फैसलों के नीचे,
ज्यों जमीन
उसे खुद मे
समाने के लिए खीचे,
दौर-ए-बदलाव से
हैरानगी है उसे खुद ही,
अजीब कशमकश मे,
उलझा ली है उसने
खुद की जिंदगी!!!

और दौर यू
बदला है यारों,
जहा किसान को,
यू कहें गरीब को
मरने की जल्दी..
इसलिये भी है क्योंकि

जिन्दगी की
कश्मकश मे कहीं
महंगा "कफ़न"
ना हो जाए
सो भी न पाएं चैन से
मिटटी भी
नम न हो जाए...

गुरुवार, 28 जुलाई 2011

न दैन्यं न पलायनम!!

मिले जब
अपनों का साथ,
मन ही मन हो
अपनों से अपनी बात.

मेरी भावनाएं हों
या एहसास
अंतर्मन के
बाँटें मन: क्या सच में?

कुछ स्वप्न मेरे
कुछ कही-कुछ अनकही,
कुछ कोने रुबाई के
मुझे आवाज़ दें,

कुछ मेरी कलम से,
मेरा समस्त,शब्द गुंजन..
जो कहे..हमें आवाज़ दे,
और कुछ पन्ने मेरी दराज़ से,

जज़्बात शेष फिर
काव्य मञ्जूषा के
लेखनी का मन
पाखी बन उड़े,
कहानियां कहे,
रचनायें रचे,
ज्यू निर्झर नीर
अबाध बहे,

गौर-तलब
जिंदगी की कतरनें,
शब्द और अर्थ
मेरी भावनाएं
एक बावरा मन,
मनन का स्पंदन,

चलते चलते
दूर से सदा आई...
गीत थे उम्मीद
और वेदना के,
बयाँ जिसने किये
जख्म
जो दिए फूलों ने...

एक प्रयास,
न दैन्यं न पलायनम!!!

शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

भावनाएं बांटे मन क्या सच में?

मिले जब
अपनों का साथ,
मन ही
मन हो
अपनों से
अपनी बात

मेरी भावनाएं हों,
या एहसास;अंतर्मन के
बांटे मन
क्या सच में?

बुधवार, 20 जुलाई 2011

यथार्थ!

जानता है दिल
इस सच्चाई को
फिर
मान क्यों नहीं लेता,
जबकि
परिणति होगी व्यर्थ;
यही है यथार्थ!

भागता है क्यों
पीछे उसके
जो उसका न होने का
यकीं दिला चुका है,
अपने रंगीन सपनो को
सजाने में
रंगीनियों में
धुला-धुला है,

जानती हूँ जबकि
वह मंजिल थी मेरी
पर
अब किसी और का
ठहराव है
क्यों खिचती हूँ
फिर उस ओर
बार-बार;
अंतहीन दिशा तक!

जवाब नही है मेरे पास
पर
चाहती हूँ जवाब
स्वं से,

पहुँच पाने
इक छोर पर,
खिचती चली जाती हूँ,
अनजाने खिचाव से;
इक अनचाहा आकर्षण
नहीं विमुख होने देता उससे!!

क्या होगी परिणति?
क्या होगा : यथार्थ का धरातल?
क्या पहुंचूंगी कभी
अपने परिणति पर?

शायद इन सबसे उपर
परिणति से भी उपर,
धरातल से उपर;
प्रश्नों से आगे,
खड़ी हूँ निरुत्तर
स्वं के ही प्रश्नों से,

पूछती हूँ
कौन है जिम्मेदार
मेरी इन
परिस्थितियों का???

रविवार, 17 जुलाई 2011

दिल के फैसले अक्सर हमें कम रास आए हैं..!!

बड़े अनजान मौसम में,
बहुत बेरंग लम्हों में.
बिना आहट
बिना दस्तक
बहुत मासूम सा सपना
उतर आया है
आँखों में,

बिना सोचे
बिना समझे.
कहा है दिल ने
चुपके से,
हाँ...इस नन्हे से
सपने को.
आँखों में
जगह दे दो!

बिना रोके
बिना टोके
सांसों में
महकने दो
हमेशा की तरह अब भी...

बिना उलझे
बिना बोले
झुका डाला है
सर हम ने!
मगर ताबीर
क्या होगी ???
ये हम जानें
न दिल जाने...
फकत मालूम है इतना
के दिल के फैसले अक्सर
हमें कम रास आए हैं..!!

गुरुवार, 14 जुलाई 2011

कुछ लम्हे जुलाई के

कुछ लम्हे जुलाई के
हम ने यूँ गुज़ारे हैं,

मौसम तेरी यादों के,
तस्वीर में उतारे हैं ...

कपकपाते होंटों से,
डगमगाती धरकन से,

हम ने अपने मालिक से,
बस दुआ ये मांगी है,

अब के बार सावन में,
जब भी बादल उतरें तो,

बस येही तमन्ना है,
नफरतों की बारिश में,

दुश्मनों की साजिश में,
बस इसी गुज़ारिश में,

ज़िन्दगी को जीने का,
इख़्तियार मिल जाये,

ऐ मेरे खुदा ! सब को,
अपना प्यार मिल जाये....!!

गुरुवार, 19 मई 2011

प्रश्न : आस्था - विश्वास का

आस्था-विश्वास
या हो
स्वयं प्रश्न तुम,
कभी सोचा
तुमने
क्यों
मौन सी तुम,


प्रस्तर कभी,
प्रतिमा कभी
बन सी जाती हो,
क्यों नहीं
उस प्रस्तर की
प्रतिमा कहलाती हो !

उठती - गिरती
स्वयं तुम्हारी
मष्तिष्क तरंगे
क्यों नहीं दे पाती -
तुम्हे
तुम्हारी पहचान !

मान
क्यों नहीं देता
तुम्हे
तुम्हारे होने का भान !

क्या प्रस्तर से
प्रतिमा बन
तेरा अहम्
पूर्ण हो जायेगा ???

क्या तेरा विश्वास
तेरी आस्था
तुझे मिल जायेगा?
इन प्रश्नों के
उचित उत्तर
ढूँढने हैं अभी ...

जिस दिन,
जिस पल,
मिल जाएगी
मेरी प्रतिछाया
उस पल पूरी हो जाएगी
मेरी मोह की माया !
पूरा हो जायेगा
मेरा विश्वास, मेरी आस्था !!