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गुरुवार, 25 अगस्त 2011

हम जी भर के रोया करते थे...



बचपन के
दुःख भी
कितने
अच्छे होते थे...


तब तो
सिर्फ
खिलौने
टूटा करते थे...


वो खुशियाँ
जाने कैसी
खुशियाँ थी???

तितली के
पर नोच के
उछला करते थे...

मार के पाँव
कुछ
बारिश के
पानी में,
अपनी कश्ती
आप डुबोया
करते थे...


सोचते हैं तो
चोट सी
दिल पर लगती है,
अपने बनाए
घरोंदे आप
तोड़ा करते थे...



अपने जल जाने
का कुछ
अहसास न था,
जलते हुवे
शोलो को
छेड़ा करते थे...

खुशबू के
उड़ते ही क्यों
मुरझाता है फूल???
कितने
भोलेपन से
पूछा करते थे...

आज
इनकी ताबीर
और रुलाती है,
बचपन में
जो अपने
देखा करते थे...


अब तो
आंसू का
एक कतरा भी
रुसवा कर जाता है,
बचपन मे
हम जी भर
के रोया करते थे...

2 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

बहुत ही भाव पूर्ण कोमल अभिव्यक्ति ..सचमुच कितने अबोध थे वो दिन...
मार के पाँव
कुछ
बारिश के
पानी में,
अपनी कश्ती
आप डुबोया
करते थे...

शुभ कामनाएं शिल्पी जी ..सादर !!!

Unknown ने कहा…

डिमरी जी,
आपके उत्साहवर्धक टिप्पडी के लिए आभार!!