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बुधवार, 20 जुलाई 2011

यथार्थ!

जानता है दिल
इस सच्चाई को
फिर
मान क्यों नहीं लेता,
जबकि
परिणति होगी व्यर्थ;
यही है यथार्थ!

भागता है क्यों
पीछे उसके
जो उसका न होने का
यकीं दिला चुका है,
अपने रंगीन सपनो को
सजाने में
रंगीनियों में
धुला-धुला है,

जानती हूँ जबकि
वह मंजिल थी मेरी
पर
अब किसी और का
ठहराव है
क्यों खिचती हूँ
फिर उस ओर
बार-बार;
अंतहीन दिशा तक!

जवाब नही है मेरे पास
पर
चाहती हूँ जवाब
स्वं से,

पहुँच पाने
इक छोर पर,
खिचती चली जाती हूँ,
अनजाने खिचाव से;
इक अनचाहा आकर्षण
नहीं विमुख होने देता उससे!!

क्या होगी परिणति?
क्या होगा : यथार्थ का धरातल?
क्या पहुंचूंगी कभी
अपने परिणति पर?

शायद इन सबसे उपर
परिणति से भी उपर,
धरातल से उपर;
प्रश्नों से आगे,
खड़ी हूँ निरुत्तर
स्वं के ही प्रश्नों से,

पूछती हूँ
कौन है जिम्मेदार
मेरी इन
परिस्थितियों का???

2 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत से प्रश्न उठते हैं मन में पर जो होना होता है वही होता है ..मन की कश्मकश को अच्छे शब्द दिए हैं

Unknown ने कहा…

संगीता जी, आपकी टिप्पड़िया सदा ही मेरी प्रेरणा रही है, और मुझे एक नया और अनोखा मार्ग दिखाती रही हैं!!!

आपको देखकर मन एक नए उत्साह से भर उठता है!!!

आभार हमेशा मेरा मनोबल बढ़ने के लिए!!!