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गुरुवार, 10 मई 2012

समन्वय और संभाषण की बातें,

समन्वय और संभाषण की बातें,
जब भी करता दिख जाता है कोई,
सोचती हूँ पूछूँ, 
उनसे उनके सम्मान के भावों को,
सोचती हूँ टटोलूं 
उनके मन के भीतर उठे झंझावातों को...

मगर जब समझ नहीं पाती हूँ 
उनके मन में उठे भाव,
तब जान जाती हूँ -
उन समन्वय के 
झूठे-खोखले शब्दों के कोरे एहसास...

समन्वय तो कभी नहीं होता है उनका मकसद, 
होती है निरी उथली - छिछली, 
बिन आधार की बातें,
जिनका न होता है कोई संपर्क समन्वय से...

टूट जाती है उस पल 
एक नन्ही सी आस 
जो छिपी बैठी रहती है ह्रदय की अंतस मे,
जिसने बुन रखा है स्वं का अंतरजाल 
और ढूढती है - 
कही दूर हो गई है जो उससे उसकी आस...

जो देखी थी उसने 
इन्ही समन्वय और संभाषणों के बीच,
मगर फिर मिला उसे 
कोरा आश्वासन, 
झूठी मंत्रणा और निराधार शुष्क ज़मीन... 

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