तुझे लफ़्ज़ों में बयां करूँ ये मेरे लिए मुमकिन नहीं,
तुझे हाले-दिल अपना मैं कहूँ ये मेरे लिए मुमकिन नहीं,
क्यूँ खो गए तुम इन घनेरी गहराते अंधेरों में?
चीर के रख दूँ दिल ये मेरे लिए मुमकिन नहीं, क्यूँ नहीं...
लौटा न पाएंगे वो पल, वो लम्हे, जो साथ तेरे जिए हमने. . .
वो जादू था अलग जिस रंग मे तूने रंगा हमें,
जो है और जो रहेगा क़यामत तलक साथ मे मेरे,
जो हो न पायेगा जुदा कभी भी कभी मुझसे...
तुझे यादों में जिंदा रखेंगे ,
दुआ है उस खुदा से जब तक सीने मे ये दिल धडके,
मेरी साँसों के साथ बस रिश्ता प्यारा बन के ये बस ले,
तेरी खामोशियों में रहूँ खामोश,
बातों में तेरी खुद को ग़ज़ल मे बना डालू...
होंटों पर हर पल गुनगुनाऊ तुझे,
या लम्हा-लम्हा तेरी यादूं मे समां जाऊ,
आरज़ू है ये मेरी,
लिपट जाऊ बदन से तेरे या खुश्बू बन तुझ-मे ही समां जाऊ!!!
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रविवार, 26 फ़रवरी 2012
शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012
एक नए परिनिर्वाण के लिए...
जिन्दगी के पलड़े मे
कई बार
सुख और दुःख के बीच
फैसला करने मे जब
खुद को कमजोर पाते हैं,
हम मौको से नहीं
अंतरआत्मा से पूछ आते हैं...
कुछ समझ न पाएं तो
एक दिल की आवाज या चाहत के जागने तक,
कुछ सिम्त ठहर कर
खुद को रोक लेते हैं
और चाहतो को दबा लेते हैं ...
एक जिजीविषा के निर्माण के लिए ..
एक नए परिनिर्वाण के लिए...
कई बार
सुख और दुःख के बीच
फैसला करने मे जब
खुद को कमजोर पाते हैं,
हम मौको से नहीं
अंतरआत्मा से पूछ आते हैं...
कुछ समझ न पाएं तो
एक दिल की आवाज या चाहत के जागने तक,
कुछ सिम्त ठहर कर
खुद को रोक लेते हैं
और चाहतो को दबा लेते हैं ...
एक जिजीविषा के निर्माण के लिए ..
एक नए परिनिर्वाण के लिए...
बुधवार, 15 फ़रवरी 2012
बेटियाँ
बेटियाँ रिश्तों-सी पाक होती हैं
जो बुनती हैं एक शाल
अपने संबंधों के धागे से।
बेटियाँ धान-सी होती हैं
पक जाने पर जिन्हें
कट जाना होता है जड़ से अपनी
फिर रोप दिया जाता है जिन्हें
नई ज़मीन में।
बेटियाँ मंदिर की घंटियाँ होती हैं
जो बजा करती हैं
कभी पीहर तो कभी ससुराल में।
बेटियाँ पतंगें होती हैं
जो कट जाया करती हैं अपनी ही डोर से
और हो जाती हैं पराई।
बेटियाँ टेलिस्कोप-सी होती हैं
जो दिखा देती हैं–
दूर की चीज़ पास।
बेटियाँ इन्द्रधनुष-सी होती हैं, रंग-बिरंगी
करती हैं बारिश और धूप के आने का इंतज़ार
और बिखेर देती हैं जीवन में इन्द्रधनुषी छटा।
बेटियाँ चकरी-सी होती हैं
जो घूमती हैं अपनी ही परिधि में
चक्र-दर-चक्र चलती हैं अनवरत
बिना ग्रीस और तेल की चिकनाई लिए
मकड़जाले-सा बना लेती हैं
अपने इर्द-गिर्द एक घेरा
जिसमें फँस जाती हैं वे स्वयं ही।
बेटियाँ शीरीं-सी होती हैं
मीठी और चाशनी-सी रसदार
बेटियाँ गूँध दी जाती हैं आटे-सी
बन जाने को गोल-गोल संबंधों की रोटियाँ
देने एक बीज को जन्म।
बेटियाँ दीये की लौ-सी होती हैं सुर्ख लाल
जो बुझ जाने पर, दे जाती हैं चारों ओर
स्याह अंधेरा और एक मौन आवाज़।
बेटियाँ मौसम की पर्यायवाची हैं
कभी सावन तो कभी भादो हो जाती हैं
कभी पतझड़-सी बेजान
और ठूँठ-सी शुष्क !
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